गीता में ‘निष्काम कर्म’ का अर्थ
श्रीमद्भगवद्गीता, जो महाभारत का एक प्रमुख भाग है, मानव जीवन के मार्गदर्शन हेतु अद्वितीय शास्त्र मानी जाती है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिए, वे जीवन, धर्म, कर्म और मोक्ष के मूलभूत सिद्धांतों को समझाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन्हीं में से एक अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है ‘निष्काम कर्म’, जिसका अर्थ है “कर्म करना, लेकिन किसी भी प्रकार की इच्छाओं और फलों की अपेक्षा किए बिना।”
‘निष्काम कर्म’ की परिभाषा
‘निष्काम’ का अर्थ है ‘इच्छा या कामना से रहित’ और ‘कर्म’ का अर्थ है ‘कर्म करना’। गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, लेकिन वह अपने कर्मों के परिणामों के प्रति आसक्त न हो।
गीता में कहा गया है:
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥”
(अध्याय 2, श्लोक 47)
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
- कर्म करने में तुम्हारा अधिकार है, लेकिन फल की अपेक्षा मत करो।
- फल की आसक्ति से मुक्त रहो, क्योंकि यह मोह और बंधन का कारण बनता है।
- कर्म को त्यागने का विचार भी न करो, क्योंकि कर्म से ही संसार की गति चलती है।
निष्काम कर्म का उद्देश्य
निष्काम कर्म का मुख्य उद्देश्य है:
- आसक्ति से मुक्ति: जब व्यक्ति फल की कामना करता है, तो उसे दुख और सुख का अनुभव होता है। सुख की प्राप्ति पर अहंकार और दुख की प्राप्ति पर निराशा होती है। निष्काम कर्म से यह चक्र समाप्त हो जाता है।
- आध्यात्मिक उन्नति: फल की चिंता न करने से मनुष्य ध्यानमग्न होकर अपने कर्म में लीन रहता है, जो अंततः उसे आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाता है।
- कर्तव्य परायणता: व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों को बिना किसी व्यक्तिगत लाभ के पूरा करता है, जिससे समाज और संसार में सामंजस्य बना रहता है।
निष्काम कर्म और स्वार्थी कर्म में अंतर
निष्काम कर्म और स्वार्थी कर्म में बड़ा अंतर है। स्वार्थी कर्म वह है जिसमें व्यक्ति केवल अपने व्यक्तिगत लाभ, सुख या प्रतिष्ठा के लिए कार्य करता है। इसके विपरीत, निष्काम कर्म का उद्देश्य परमात्मा की प्रसन्नता या समाज की भलाई के लिए निस्वार्थ भाव से कार्य करना है।
गीता में कहा गया है:
“योग: कर्मसु कौशलम्।”
(अध्याय 2, श्लोक 50)
इसका अर्थ है कि कर्म को ध्यानपूर्वक, दक्षता से और बिना आसक्ति के करना ही योग है। यह दक्षता तब आती है, जब व्यक्ति निष्काम भाव से कार्य करता है।
निष्काम कर्म का जीवन में महत्व
गीता के इस सिद्धांत का आज के जीवन में भी गहरा प्रभाव है।
- मानसिक शांति: जब व्यक्ति फल की चिंता छोड़कर केवल कर्म करता है, तो वह मानसिक तनाव से मुक्त होता है।
- कार्य में समर्पण: निष्काम भाव से किया गया कार्य श्रेष्ठ होता है, क्योंकि उसमें व्यक्ति पूरी ऊर्जा और ध्यान लगाता है।
- सामाजिक योगदान: यदि सभी लोग अपने कार्यों को निष्काम भाव से करें, तो समाज में ईर्ष्या, लोभ और अनैतिकता का स्थान समाप्त हो जाएगा।
- आध्यात्मिक उन्नति: निष्काम कर्म व्यक्ति को आत्मज्ञान और परमात्मा से जोड़ने में सहायक होता है।
निष्काम कर्म का उदाहरण
- कृष्ण के जीवन से: भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने जीवन में निष्काम कर्म का पालन किया। चाहे उनका गोकुलवास हो, मथुरा के अत्याचारी कंस का अंत करना हो, या अर्जुन को युद्ध में मार्गदर्शन देना, वे सदा निष्काम भाव से कर्म करते रहे।
- गांधीजी के जीवन से: महात्मा गांधी का जीवन भी निष्काम कर्म का उदाहरण है। वे बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के, केवल समाज और देश की सेवा में लगे रहे।
निष्काम कर्म और योग
गीता में निष्काम कर्म को ‘कर्म योग’ का आधार बताया गया है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि निष्काम कर्म ही सच्चा योग है।
“सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।”
(अध्याय 2, श्लोक 48)
इसका अर्थ है कि सफलता और असफलता दोनों में समान भाव रखना ही योग है।
निष्काम कर्म और भक्ति
गीता में निष्काम कर्म को भक्ति के साथ जोड़कर समझाया गया है। यदि व्यक्ति अपने सभी कर्म भगवान को समर्पित कर देता है, तो वह निष्काम कर्म का पालन करता है।
“यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥”
(अध्याय 9, श्लोक 27)
निष्कर्ष
निष्काम कर्म गीता का एक प्रमुख संदेश है, जो मानव जीवन को संतुलित, शांतिपूर्ण और आनंदमय बनाने का मार्ग दिखाता है। यह सिद्धांत हमें सिखाता है कि कर्म करना हमारा धर्म है, लेकिन परिणामों की चिंता किए बिना। यदि व्यक्ति गीता के इस संदेश को अपने जीवन में आत्मसात कर ले, तो वह न केवल व्यक्तिगत, बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक स्तर पर भी उन्नति कर सकता है। निष्काम कर्म का अभ्यास जीवन को सरल, पवित्र और उद्देश्यपूर्ण बनाता है।